Muslim Helped Children in Maharajganj महराजगंज का दिल दहला देने वाला सच: पिता के शव संग भटके मासूम, इंसानियत के रखवाले बने दो मुस्लिम भाई

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Muslim Helped Children in Maharajganj महराजगंज का दिल दहला देने वाला सच: पिता के शव संग भटके मासूम, इंसानियत के रखवाले बने दो मुस्लिम भाई

महराजगंज (उत्तर प्रदेश)

Muslim Helped Children in Maharajganj   भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसालें किताबों में बहुत पढ़ी जाती हैं, लेकिन शनिवार को उत्तर प्रदेश के महराजगंज ज़िले ने इसे जीकर दिखा दिया। यहां तीन मासूम बच्चों ने अपने पिता की लाश को ठेले पर रखकर दो दिन तक दर-दर की ठोकरें खाईं। मां पहले ही छह महीने पहले दुनिया छोड़ चुकी थी। सहारा तलाशते बच्चों की चीखें किसी के दिल को नहीं पसीजा सकीं। मगर जब अपनों ने मुंह मोड़ लिया, तब दो मुस्लिम भाइयों ने न केवल बच्चों का हाथ थामा, बल्कि हिंदू रीति से अंतिम संस्कार कर इंसानियत को सबसे ऊँचा दर्जा दे दिया।

ठेले पर पिता की लाश, सड़क पर बिलखते बच्चे

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Muslim Helped Children in Maharajganj
सोर्स बाय गूगल इमेज

राजेंद्र नगर, नौतनवा निवासी लव कुमार पटवा लंबे समय से बीमार चल रहे थे। शनिवार को उनका निधन हो गया। परिवार की मां का साया पहले ही उठ चुका था। पिता के जाने के बाद 14 वर्षीय राजवीर, 10 वर्षीय देवराज और छोटी बहन पूरी तरह अनाथ हो गए।

Muslim Helped Children in Maharajganj मासूम बच्चों ने उम्मीद की थी कि पड़ोसी, रिश्तेदार या समाज उनका साथ देंगे। मगर दो दिनों तक घर में शव पड़ा रहा और किसी ने मदद का हाथ नहीं बढ़ाया। अंततः बच्चों ने वही ठेला निकाला जिस पर उनके पिता ने जीवनभर परिवार का पेट भरा था। उसी पर पिता की लाश रखी और श्मशान की ओर निकल पड़े।

श्मशान और कब्रिस्तान—दोनों जगह से लौटा दिया गया शव

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जब बच्चे श्मशान घाट पहुँचे तो लकड़ी की कमी बताकर अंतिम संस्कार रोक दिया गया। मासूम हताश होकर शव लेकर कब्रिस्तान पहुँचे, लेकिन वहाँ भी जवाब मिला—”यह हिंदू का शव है, यहाँ दफ़न नहीं हो सकता।”

सड़क पर ठेले पर पड़ी लाश और रोते-बिलखते मासूम बच्चों का मंजर जिसने भी देखा, उसका कलेजा कांप उठा। लेकिन अफसोस, किसी ने आगे बढ़कर उनकी मदद नहीं की। राहगीरों ने बच्चों की गुहार को भी “भीख माँगने का नया तरीका” कहकर टाल दिया।

Muslim Helped Children in Maharajganj इंसानियत के रखवाले बने राशिद और वारिस

इसी बीच नगर पालिका के बिस्मिल नगर वार्ड सभासद प्रतिनिधि राशिद कुरैशी और राहुल नगर वार्ड सभासद वारिस कुरैशी को घटना की खबर मिली। दोनों मौके पर पहुँचे और बच्चों को ढांढस बंधाया। उन्होंने लकड़ी और अन्य आवश्यक सामग्री का इंतज़ाम किया, और फिर मासूमों को साथ लेकर श्मशान घाट पहुँचे।

देर रात तक दोनों भाइयों ने हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था की। उन्होंने खुद लकड़ियाँ सजाईं, मंत्रोच्चार की तैयारी करवाई और बच्चों के साथ मिलकर पिता की चिता को अग्नि दिलवाई।L

समाज के लिए आईना, देश के लिए सबक

यह घटना केवल एक परिवार की त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे समाज पर सवाल है। पड़ोसी और रिश्तेदार जहाँ पीछे हट गए, वहीं अलग मजहब से ताल्लुक रखने वाले दो युवकों ने इंसानियत को धर्म से ऊपर रखा। यह साबित करता है,कि असली ताकत जाति या मजहब में नहीं, बल्कि करुणा और आपसी भाईचारे में है।

आज जब समाज छोटी-छोटी बातों पर बंट जाता है, तब राशिद और वारिस कुरैशी का यह कदम बताता है, कि भारत की आत्मा अभी भी इंसानियत से धड़कती है।

बच्चों की मासूमियत, समाज की संवेदनहीनता Muslim Helped Children in Maharajganj

तीनों बच्चे आज भी पिता की चिता को निहारते हुए यही सोच रहे होंगे कि क्या वाकई यह वही समाज है, जिसमें वे बड़े हो रहे हैं? यह वही मोहल्ला है, जहाँ उनके पिता ने ठेला चलाकर वर्षों तक लोगों की सेवा की। मगर उनके अंतिम संस्कार के समय वही लोग पीछे हट गए। यह दृश्य हर भारतीय के लिए सवाल है, कि क्या हम संवेदनशीलता खोते जा रहे हैं?

सोशल मीडिया पर भावनाओं का सैलाब Muslim Helped Children in Maharajganj

जैसे ही घटना की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर पहुँचे, हजारों लोग दोनों मुस्लिम भाइयों की सराहना करने लगे। लोगों ने कहा कि यह घटना भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब का सबसे बड़ा उदाहरण है। कई लोगों ने प्रशासन और समाज को कठघरे में खड़ा किया कि आखिर बच्चों को दो दिन तक शव के साथ क्यों भटकना पड़ा।

हिंदू-मुस्लिम एकता का जीवंत उदाहरण

राशिद और वारिस ने जो किया, वह किसी धर्म के दायरे से परे है। उन्होंने दिखाया कि भारत का असली रंग वही है जिसमें मंदिर की घंटियाँ और मस्जिद की अज़ानें एक साथ गूंजती हैं। जिसमें मुश्किल की घड़ी में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब एक-दूसरे का सहारा बनते हैं।

निष्कर्ष Muslim Helped Children in Maharajganj

महराजगंज की यह घटना दर्दनाक ज़रूर है, लेकिन इसके बीच से निकला इंसानियत का उजाला पूरे देश के लिए उम्मीद की किरण है। जब तीन मासूम बच्चों को अपने ही समाज ने ठुकरा दिया, तब दो मुस्लिम भाइयों ने उन्हें गले लगाया और पिता का अंतिम संस्कार हिंदू परंपरा से कराया।

यह कहानी हर भारतीय के दिल में उतर जानी चाहिए कि इंसानियत सबसे बड़ा मजहब है। अगर हम सब मिलकर एक-दूसरे के दुख में साथ खड़े हों, तो नफरत की कोई दीवार हमें कभी बाँट नहीं पाएगी।

 

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